Lekhika Ranchi

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मुंशी प्रेमचंद ः सेवा सदन


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सदन प्रातःकाल घर गया, तो अपनी चाची के हाथों में कंगन देखा। लज्जा से उसकी आंखें जमीन में गड़ गईं। नाश्ता करके जल्दी से बाहर निकल आया और सोचने लगा, यह कंगन इन्हें कैसे मिल गया?

क्या यह संभव है कि सुमन ने उसे यहां भेज दिया हो? वह क्या जानती है कि कंगन किसका है? मैंने तो उसे अपना पता भी नहीं बताया। यह हो सकता है कि यह उसी नमूने का दूसरा कंगन हो, लेकिन इतनी जल्दी वह तैयार नहीं हो सकता। सुमन ने अवश्य ही मेरा पता लगा लिया है और चाची के पास यह कंगन भेज दिया है।

सदन ने बहुत विचार किया। किंतु हर प्रकार से वह इस परिणाम पर पहुंचता था। उसने फिर सोचा। अच्छा, मान लिया जाए कि उसे मेरा पता मालूम हो गया, तो क्या यह उचित था कि वह मेरी दी हुई चीज को यहां भेज देती? यह तो एक प्रकार का विश्वासघात है?

अगर सुमन ने मेरा पता लगा लिया है, तब तो वह मुझे मन में धूर्त, पाखंडी, जालिया समझती होगी? कंगन को चाची के पास भेजकर उसने यह भी साबित कर दिया कि वह मुझे चोर समझती है।

आज संध्या समय सदन को सुमन के पास जाने का साहस न हुआ। चोर, दगाबाज बनकर उसके पास कैसे जाए? उसका चित्त खिन्न था, घर पर बैठना बुरा मालूम होता था। उसने यह सब सहा, पर सुमन के पास न जा सका।

इस भांति एक सप्ताह बीत गया। सुमन से मिलने की उत्कंठा नित्य प्रबल होती जाती थी और शंकाएं इस उत्कंठा को दबाती जाती थी। संध्या समय उसकी दशा उन्मत्तों की-सी हो जाती। जैसे बीमारी के बाद मनुष्य का चित्त उदास रहता है, किसी से बातें करने को जी नहीं चाहता, उठना-बैठना पहाड़ हो जाता है, जहां बैठता है, वहीं का हो जाता है, वही दशा इस समय सदन की थी।

अंत को वह अधीर हो गया। आठवें दिन उसने घोड़ा कसाया और सुमन से मिलने चला। उसने निश्चय कर लिया था कि आज चलकर उससे अपना सारा कच्चा चिट्ठा बयान कर दूंगा। जिससे प्रेम हो गया, उससे अब छिपाना कैसा! हाथ जोड़कर कहूंगा, सरकार बुरा हूं तो, भला हूं तो, अब आपका सेवक हूं। चाहे जो दंड दो, सिर तुम्हारे सामने झुका हुआ है। चोरी की, चाहे दगा किया, सब तुम्हारे प्रेम के निमित्त किया, अब क्षमा करो।

विषय– वासना, नीति, ज्ञान और संकोच किसी के रोके नहीं रुकती। उसके नशे में हम सब बेसुध हो जाते हैं।

वह व्याकुल होकर पांच बजे निकल पड़ा और घूमता हुआ नदी के तट पर आ पहुंचा। शीतल, मंद वायु उसके तपते हुए शरीर को अत्यंत सुखद मालूम होती थी और जल की निर्मल, श्याम, सुवर्ण धारा में रह-रहकर उछलती हुई मछलियां ऐसी मालूम होती थीं, मानों किसी सुंदरी के चंचल नयन महीन घूंघट से चमकते हों।

सदन घोड़े से उतरकर कगार पर बैठ गया और इस मनोहर दृश्य को देखने में मग्न हो गया। अकस्मात् उसने एक जटाधारी साधु को पेड़ों की आड़ से अपनी तरफ आते देखा। उसके गले में रुद्राक्ष की माला थी और नेत्र लाल थे। ज्ञान और योग की प्रतिभा की जगह उसके मुख से एक प्रकार की सरलता और दया प्रकट होती थी। उसे अपने निकट देखकर सदन ने उठकर सत्कार किया।

साधु ने इस ढंग से उसका हाथ पकड़ लिया, मानो उससे परिचय है और बोला– सदन, मैं कई दिन से तुमसे मिलना चाहता था। तुम्हारे हित की एक बात कहना चाहता हूं। तुम सुमनबाई के पास जाना छोड़ दो, नहीं तो तुम्हारा सर्वनाश हो जाएगा। तुम नहीं जानते, वह कौन है? प्रेम के नशे में तुम्हें उसके दूषण नहीं दिखाई देते। तुम समझते हो कि वह तुमसे प्रेम करती है। किंतु यह तुम्हारी भूल है। जिसने अपने पति को त्याग दिया वह दूसरों से क्या प्रेम निभा सकती है? तुम इस समय वहीं जा रहे हो। साधु का वचन मानो, घर लौट जाओ, इसी में तुम्हारा कल्याण है।

यह कहकर वह महात्मा जिधर से आए थे, उधर ही चल दिए और इससे पूर्व कि सदन उनसे कुछ जिज्ञासा करने के लिए सावधान हो सके, वह आंखों से ओझल हो गए।

सदन सोचने लगा, यह महात्मा कौन है? यह मुझे कैसे जानते है? मेरे गुप्त रहस्यों का इन्हें कैसे ज्ञान हुआ? कुछ उस स्थान की नीरवता, कुछ अपने चित्त की स्थिति, कुछ महात्मा के आकस्मिक आगमन और उनकी अंर्तदृष्टि ने उनकी बातों को आकाशवाणी के तुल्य बना दिया। सदन के मन में किसी भावी अमंगल की आशंका उत्पन्न हो गई। उसे सुमन के पास जाने का साहस न हुआ। वह घोड़े पर बैठा और इस आश्चर्यजनक घटना की विवेचना करता घर की तरफ चल दिया।

जब से सुभद्रा ने सदन पर अपने कंगन के विषय में संदेह किया था, तब से पद्मसिंह उससे रुष्ट हो गए थे। इसलिए सुभद्रा का यहां अब जी न लगता था। शर्माजी भी इसी फिक्र में थे कि सदन को किसी तरह यहां से घर भेज दूं। अब सदन का चित्त भी यहां से उचाट हो रहा था। वह भी घर जाना चाहता था, लेकिन कोई इस विषय में मुंह न खोल सकता था पर दूसरे ही दिन पंडित मदनसिंह के एक पत्र ने उन सबकी इच्छाएं पूरी कर दीं। उसमें लिखा था, सदन के विवाह की बातचीत हो रही है। सदन को बहू के साथ तुरंत भेज दो।

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